बुधवार, 3 फ़रवरी 2010

ऐसे करते है विदेश में देश का नाम बदनाम










ये भी है एक सच

ब्रिटिश मीडिया में इन बच्चो को निर्माण

स्थलों पर कम करते बताया गया है






ऐसे करते हैं विदेश में देश का नाम बदानाम

e है विदेशी मीडिया की खबर का सच
देश की छवि को बिगाड़ने की कोशिश

नई दिल्ली। वहां गरीबी भी है और कठिनाईयों में जूझती जिंदगी भी है। हो सकता है कि उनकी हालत स्लम या जेजे कलस्टर में रहने वाले लोगों से भी दयनीय हो लेकिन दूध मूंहे बच्चों से कामनवेल्थ गेम परियोजना पर काम कराने की जो तस्वीर विदेशी मीडिया विश्व को दिखा रहा है उस तस्वीर के पीछे का सच विदेशी मीडिया की विश्वसनीयता को तार तार कर रहा है। इसके पीछे कभी विश्व में मीडिया के जरिए भारत की गरीबी को बेचने की मानसिकता दिखाई देती हैै तो कभी विदेशी खबरनवीसों की दिमागी खुराफात विश्व में भारत की छवि को कलंकित करती दिखाई देती है लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अगर कहीं निर्माण में लगे श्रमिक गरीबी के चलते अपने बच्चों को स्कूल न भेज सकने कोे अभिशप्त हैं तो वहीं इसी देश में गरीब नौनिहालों का भविष्य संवारने के लिए स्वैच्छिक संस्थाओं की कतार भी दिखाई दे रही है। कभी कोई फिल्मकार आस्कर जीतने के लिए इस देश की अस्मत को पूरे विश्व में लुटाता है तो कभी कोई विदेशी मीडियाकर्मी मानवीयता के बहाने भारत की गरीबी को बेचने की कोशिश करता है लेकिन यह कोई आस्कर विजेता स्लम डाॅग की कहानी नहीं है कि इसके जरिए स्लम के नौनिहालों को डाॅग की तरह पेश कर आस्कर जीते जा सकें, और न ही यह विदेशी मीडिया की वह बदरंग रिर्पोट है जिसमें दूध मूंहे बच्चों को निर्माण स्थलों पर दिखाया गया है, यह वास्तव में वह सच है जो सच विदेशी मीडिया में प्रकाशित खबर की खबर तो लेता ही है साथ ही विदेशियों की भारत के बारे में बनी मानसिकता को भी प्रदर्शित करता है। किसी भी स्वाभिमानी भारतीय के लिए दिल को कचोटनी वाली खबर यह है कि लंदन के एक अखबार मेल आनलाइन ने निर्माण स्थलो ंपर खेलते बच्चों की तस्वीरों के जरिए अपनी रिपोर्ट में यह बताने की कोशिश की थी कि भारत में कामनवेल्थ परियोजनाओं पर दूध मूंहे बच्चों से भी काम कराया जा रहा है, लेकिन इस खबर का सच यह है कि निर्माण मजदूरों की कालोनियों में इन नौनिहालों के लिए एैसे क्रेच चलाये जा रहे हैं जहां उन्हें आहार भी दिया जाता है, शिक्षा भी दी जाती है और बचपन का लाड प्यार भी। मोबाइल क्रेच नामक एक स्वैच्छिक संस्था तो इंदिरागांधी स्टेडियम, जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम, शिवाजी स्टेडियम, इंदिरागांधी स्टेडियम, सिरी फोर्ट तथा खेल गांव में कार्य कर रहे मजदूर परिवारों के बच्चों के लिए पांच क्रेच चला रही है। हमने एक क्रेच में जाकर वहां की तस्वीर देखी निर्माण में लगी महिला मजदूरों का इन क्रेच के प्रति उत्साह भी देखा। स्टेडियम के निकट ही बसी अस्थायी लेबर कालोनी में कभी आसाम के रंगिया निवासी दीप लाल अपनी 3 वर्षीय बच्ची कंचन व बेटे पंकज को गोद में लेकर क्रेच की ओर बढ़ता दिखाई देता है तो कभी महिला मजदूर सुजिता, कुमुदनी, हस्ता व पूजा अपने बच्चों को लेकर क्रेच की ओर बढ़ती दिखाई देती है। वह बताती हैं कि सवेरे 9 बजे वह क्रेच में अपने बच्चों को लेकर जाती हैं ओर शाम 5 बजे काम से वापस लौटने के बाद बच्चों को वहां से लेते हुए घर पहुंचती है। इस क्रेच में बच्चों के लिए वह सब कुछ उपलब्ध कराने की कोशिश की गई है जिसे उसकी जरूरत है। दो बार नाश्ता व दोपहर में खाना दिये जाने के अलावा क्रेच में नियुक्त शिक्षिकाएं मनोयोग से इन बच्चों की देखभाल करने के साथ साथ प्राथमिक शिक्षा भी उपलब्ध कराती है। मोबाइल क्र्रेच की निदेशक मृदला बजाज के मुताबिक सभी पांच क्रेच में निर्माण मजदूरों के 400 से 500 प्रतिदिन लाये जाते हैं जिन्हे उनके माता पिता वहां छोड़कर मजदूरी करने जाते है।




1 टिप्पणी:

डॉ० डंडा लखनवी ने कहा…

@ सवाल उठता है। यदि विदेशी पत्रकार भारत आ कर यहाँ की छवि को गलत ढ़ग से पेश कर सकते हैं.....तो विदेश जाने वाले भारतीय पत्रकार वहाँ से भारी गिफ्ट ले कर क्यों लालायित रहते हैं। वे वहाँ की नकारा छवि को मीडिया के समक्ष क्यों नहीं रखते? इसका उत्तर किसके पास है?

@ स्लम बस्तियाँ भारत की एक सच्चाई हैं। हम देश को ऊपर-ऊपर कब तक चिकना चुपड़ा बनाते रहेंगे। देश की राजधानी में जब मजदूरॊं के बच्चों की यह स्थिति है तो आंचलिक क्षेत्रों में स्थिति कैसी होगी कल्पना कर सकते हैं। इस स्थिति से हम आखिर कब उबरेंगे?
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी