सोमवार, 2 नवंबर 2009

हम कब सीखेंगे एक शहर मे रहने की तहजीब

एक्सरे : क्या ये है एक सभ्य शहर की तहजीब

  • जगह जगह करते हैं पानी की बरबादी
    बातचीत के लहजे में आखिर क्यो है रुखापम
    आफिस हो या घर दीवारें हो गई हैं पीकदान
    सड़क पार करने का नहीं है सलीका
    फुट ओवर ब्रिज के बावजूद जान जोखिम में डालकर करते हैं सड़क पार
    अंडर पास को हमने खुद बना दिया है नशेड़ियों व भिखारियों का अड्डा
    भिखारियों को बढ़ावा देकर दे रहे हैं भिक्षावृति को प्रोत्साहन
    यहां की भिक्षावृति है विदेशियों के सामने एक बड़ा कलंक
    वाहन चालक सड़कों पर रेड लाइट जम्प करने में महसूस करते हैं गौरव
    रेड लाइट पर जेब्रा क्रासिंग से आगे गाड़ी खड़ी करने से मिलती है आत्म संतुष्टि
    सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी फैलाने में हम हैं माहिर
    सरकारी सम्पत्ति को नष्ट करना हो गया है हमारा अधिकार
    यातायात नियमों का पालन करने में हमें होती है शर्मीन्दगीसड़कों पर पैदल चलने का भी नहीं है सलीका
    पैदल चलते वक्त महिलाओं को घूरती हैं निगाहें
    सड़कों पर मौज मस्ती के नाम पर अशलील हरकतें
    सड़कों पर जगह जगह थूकना मानों है हमारा अधिकार
    कूड़ा फैंकने के लिए आखिर क्यों उठायें कूड़ेदान तक जाने की जहमत
    सार्वजनिक स्थानों पर ध्रुमपान तो हम करेंगे ही
    बसों में ड्राइवरों, कंडक्टरों का व्यवहार है जगजाहिर
    बसों में अन्य यात्रियों से अभद्र व्यवहार में हम स्वयं भी नहीं हैं कम
    बात बात पर है झगड़ने की आदत
    बसों में महिलाओं से छेड़खानी का ढूंढते हैं बहाना
    अपने काम के प्रति नहीं होंगे जिम्मेदार
    मेट्रो, बस व ट्रेनों में चढ़ने की नहीं सीखेंगे तहजीब
    धक्का मुक्की करना अब हो गई है आदत
    स्टेशन पर ट्रेन खड़ी होने के बाद ही करेंगे ट्रेन के शौचालय का प्रयोग
    सार्वजनिक स्थानों पर शौच व लघुशंका से नहीं है गुरेज
    सार्वजनिक शौचालयों में फैलाते हैं गंदगी
    बात बात पर झूठ बोलना हो गया है दिनचर्या का हिस्सा
    सामने वाले को हरगिज नहीं देंगे तरजीह
    सामने वाले पर अपनी बात थोपना है हमारा अधिकार
    शराब पीकर वाहन चलाने में आता है मजा
    सड़कों पर स्पीड लिमिट का उल्लंघन करके ही मिलती है आत्म संतुष्टि
    पर्यावरण की चिंता हम क्यों करें, करेगी सरकार
    सड़कों के किनारे या सार्वजनिक स्थानों पर नशा करना है आदत
    अगर हम आटो व टैक्सी चालक हैं तो मनमानी दरों पर ही यात्राी को ले जायेंगे
    अपने बच्चों को भी नहीं सिखा रहे हैं सभ्य नागरिक जीवन के संस्कार
    प्राचीन धरोहरों को कर रहे हैं खुद ही नष्ट
    नदियों नहरों में ही डालेंगे अपनी समूची गंदगी

    सवाल हमारी सभ्यता की साख का

  • अब तो सवाल साख का है, ये सवाल देश की साख का है, हमारी सभ्यता की साख का है और हमारी संस्कृति की साख का है। क्या सचमुच हमारी असभ्य हरकतों ने देश की साख बचाये रखने का संकट खड़ा कर दिया है, यही एक बड़ा सवाल है जो कामनवेल्थ गेम्स की मेजबानी के लिए तैयार हो रही देश की राजधानी की आम जनता से पूछा जा रहा है। विडंबना यह है कि अब देश की साख को बचाने के लिए जनता को जगाने की तैयारी कर रही सरकार स्वयं भी सोयी है। यह ठीक है कि सिविक सेंस के लिए हमें जागना होगा लेकिन जगह जगह स्वयं कई नागरिक समस्याएं उत्पन्न करने वाली सरकार को कौन जगायेगा। सरकार सेर तो आम जनता सवा सेर, आम जनता अपनी तहजीब भूल रही है तो सरकार अपना फर्ज भूल रही है। देश की राजधानी दिल्ली की 80 प्रतिशत जनता प्रतिदिन कदम कदम पर सिविक प्राब्लम (नागरिक समस्याओं) से रूबरू होती है और अंततः इन समस्याओं का हिस्सा बनकर समस्याओं को तो विकराल बना ही रही है अपनी मानसिकता को भी ं विकृत बना रही है, यही कारण है कि अब यही विकृत मानसिकता हमारी सभ्यता के रूप में दिखाई देने लगी है। देश के गृहमंत्राी पी.चिदंबरम हों या फिर मुख्यमंत्राी शीला दीक्षित, इनका कहना है कि दिल्ली वासियों को शहरों में रहने के तौर तरीके सीखने होंगे। इनके कहने का निहितार्थ यही है कि यदि दिल्ली वासियों ने अच्छे व बडे शहरों में रहने के तौर तरीके न सीखे तो कामनवेल्थ गेम के दौरान आने वाले हजारों विदेशी मेहमानों के सामने देश व दिल्ली की छवि पर बट्टा लगेगा। यह ठीक है कि यहां का आम शहरी शैक्षिक व सामाजिक रूप से जितना सभ्य हो रहा है, व्यवहारिक रूप से उतना ही असभ्य हो रहा है, खासकर सिविक सेंस के प्रति तो मात्रा 5 से 10 प्रतिशत शहरी ही गंभीर होंगे। सामाजिक ढांचा ही इस तरह का खड़ा हो गया है कि इस ढांचे का हर प्राणी, चाहे वह नौकरशाह हो या मजदूर, चाहे वह राजनीतिज्ञ हो या व्यापारी,उद्यमी, क्लर्क हो या अफसर, डाक्टर हो या मरीज सभी तो कदम कदम पर अपनी असभ्यता को प्रकट कर ही देते है तभी तो अब दिल्ली वासियों को एटीकेट व एटीटयूड सिखाने की बात की जा रही है। यह हमारी आदत हो गई है कि जिस काम के लिए हमें मना किया जायेगा, उसे करने में हमें गौरव हासिल होता है। जहां लिखा होगा थूकना मना है, हम वहीं थूकेंगे, सड़कों पर नो पार्किंग के बोर्ड लगे होंगे और हम उनके सामने ही अपना वाहन पार्क करेंगे। सड़कें, ट्रेन, बस, रिक्शा, टैक्सी, आटो, अस्पताल, हैल्थ केयर सेंटर, खेल मैदान, होटल, रेस्टोरेंट, क्लब, स्कूल कालेज हर जगह हम खुद इस तरह की अस्भ्यता के शिकार भी होते हैं और इस तरह की असभ्यता प्रदर्शित भी करते हैं। दिल्ली में सिविक समस्याएं बढ़ रही हैं तो इसका एक बड़ा कारण यह भी है, इसके लिए दोषी कौन यह एक ऐसा सवाल है कि पहले मुर्गी या पहले अंडा। जवाब सीधा और सरल है वह यह कि आम जनता हो या सरकार में बैठे लोग सभी की सिविक समझदारी, सकारात्मक सोच तथा समाज, शहर व व्यक्तियों के लिए जिम्मेदारी कम हो रही है।


    क्या कहते हैं चिदंबरम
  • कामनवेल्थ गेम के दौरान बाहर से आने वाले मेहमानों पर अपने व्यवहार से अच्छा प्रभाव डालने के लिए दिल्ली के लोगों को अपनी बुरी आदतें बदलनी होंगी, तभी हम उन्हें प्रभावित कर सकते है। देश भर से लोग दिल्ली आते हैं, हम उन्हें दिल्ली आने से रोक नहीं सकते लेकिन अगर वह दिल्ली आते हैं तो उन्हें दिल्ली के प्रति खुद को व्यवहारिक बनाना होगा। दिल्ली के लोगों को एक बड़े अन्तर्राष्ट्रीय शहर के नागरिकों की तरह व्यवहार करना चाहिए।
  • मजबूरी भी है नगरीय तहजीब का उल्लंघन

  • दिल्ली की जनता को विश्व स्तरीय नगरीय जीवन की तहजीब सिखाने की कवायद पर तो बहस हो रही हैै लेकिन जो लोग नगरीय जीवन की तहजीब में स्वयं को बांधे रखना चाहते हैं उनके सामने भी तहजीब के इस दायरे को तोड़ने की कई मजबूरियां है। यह वह वर्ग है जो तहजीब सीखने से पहले अपनी मजबूरियों का हल चाहता है। दरअसल ऊंची इमारतों व आकर्षक फ्लाईओवरों ने भले ही दिल्ली के चेहरे को चमकदार बना दिया हो लेकिन जिस तरह पिछले पांच दशक में दिल्ली का बेढंगा विकास हुआ है उसने एैसी बदरंग दिल्ली बनाई है कि इसमें रंग भरने में लंबा समय लगेगा। जिस राजधानी में लगभग 1600 अनाधिकृत कालोनियां हों और हजारों झुग्गी झौपड़ियां व कलस्टर हों उस दिल्ली के आम नागरिक को नगरीय जीवन की तहजीब होगी इसकी कल्पना करना भी निरर्थक है। अनाधिकृत कालोनियांे का दौरा करने पर पता चलता है कि वर्षो से वहां कोई कूड़ेदान सरकारी स्तर पर नहीं है। सड़क या नाले नालियां ही उनके कूड़ेदान है, नतीजतन सड़कों पर कूड़ा डालना उनकी आदत हो गई है। पेयजल लाइन न होने के कारण जल निगम की पाइप लाइन को बीच में काटकर अपनी प्यास बुझाना उनकी मजबूरी है चाहे इसके बदले काटे गये स्थान से महीनों तक पानी बेकार बहता रहे क्योंकि उनके सरोकार पानी की बरबादी से ज्यादा अपनी प्यास से जुड़े हैं। जिन क्षेत्रों में वर्षो से कोई स्कूल तक नहीं है उस क्षेत्रा के बच्चों से एटीकेट व एटीटयूट की उम्मीद कैसे की जा सकती है, आखिर एैसे क्षेत्रों के बच्चों की एक पीढ़ी अब नयी पीढ़ी को जन्म दे रही है। आज इन क्षेत्रों से जन्म लेने वाली नई पीढ़ी पर नगरीय जीवन की तहजीब बिगाड़ने का आरोप भले ही लगाया जाये लेकिन असली गुनाहगार तो वह लोग हैं जिन्होंने अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिए इस पौध को खड़ा किया है।
  • कहीं अहम तो कहीं गर्वानुभूति कराती है तहजीब का उल्लंघन

  • सिविक सेंस यानि नगरीय तहजीब को तोड़ने में कहीं व्यक्ति का अहम प्रमुख भूमिका निभाता है तो कहीं नियम तोड़ने में होने वाली गर्वानुभूति इसका कारण बनती है। दिल्ली की कथित हाई क्लास सोसायटी के लोगों में एक बड़ा वर्ग एैसा है जो नियमों का उल्लंघन करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता है। हाई क्लास सोसायटी के लोगों की पहुंच भी ऊंची होती है और उनके भीतर खुद को औरों से अलग दिखने की इच्छा भी हिलौरें लेती है। ऊंची पहुंच का फायदा उठाकर ही वह नियम तोड़ते हैं और यह उनकी आदत बन जाती है। यातायात पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने बातचीत में यह स्वीकार किया कि दिन भर उनके कार्यालय में सैंकड़ों फोन ऊंची पहंुच व ऊंचे रसूख वाले लोगों के मात्रा इसलिए आते हैं क्योंकि बीच सड़क में यातायात पुलिस ने उन्हें नियम के उल्लंघन मे ंपकड़ लिया है। चालान से बचने और संबधित यातायात पुलिसकर्मी को अपना रसूख दिखाने के लिए वह तत्काल फोन घूमाते है। इनमें एक बड़ी संख्या तो ऐसे लोगों की भी होती है जो सीधे सीधे यातायात पुलिसकर्मी को उसकी वर्दी उतरवाने की धमकी तक दे देते है। बड़े घरों के रईसजादे जब बाईक लेकर सड़कों पर उतरते हैं तो बाइक की रफ्तार, बीच सड़क में स्टंट और रेड लाइट जंप करना उनके लिए आम बात होती है। विडंबना तो यह है कि पकड़े जाने पर उन्हें चालान का भी कोई भय नहीं होता और यातायात पुलिस कर्मी के पहुंचने से पहले ही वह अपनी जेब से चालान के जुर्माने की राशि हाथ मे लेकर लहराने लगते हैं। दक्षिणी दिल्ली व पश्चिमी दिल्ली में अक्सर इस तरह के बाइक सवारों को देखा जा सकता है जो जानबूझ कर नियमों का उल्लंघन करते हैं। एैसा कर उन्हें गर्व की अनुभूति होती है।
  • सजा कम होना भी है एक बड़ा कारण

  • राजधानी के लोगों में सिविक सेंस न होने का एक बड़ा कारण नियम तोड़ने या नगरीय तहजीब का उल्लंघन करने पर सजा कम होना भी है। या तो इनफोर्समेंट एजेंसियां काम ही नहीं करती, यदि काम भी करती हैं तो सजा इतनी कम होती है कि उसका कुछ प्रभाव नहीं होता। कुछ समय पहले ही सार्वजनिक स्थानों पर धु्रमपान पर रोक लगा दी गई थी, जिसे लेकर मीडिया ने भी काफी प्रचार किया था लेकिन आज स्थिति यह है कि इस कानून के कोई मायने नहीं है। यातायात नियमों के उल्लंघन के मामले में पुलिस कुछ कठोर जरूर है लेकिन वहां चालान की राशि इतनी कम है कि चालान का कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी तरह सड़कों के किनारे खड़े होकर लघु शंका करने जैसी हरकतें हों या फिर सड़कों पर पैदल चलने की तहजीब, इन मुद्दों को न तो यह सब करने वाले गंभीरता से लेते हैं और न ही शासन की सिविक एजेंसियां गंभीरता से लेती हैं। दिल्ली को साफ रखने की बात तो की जाती है लेकिन सड़कांें पर चलते समय थूकना, फास्ट फूड के खाली रैपर फंैंकना, कोल्ड ड्रिंक के खाली टीन के छोटे ड्रम फेंकना आम बात है। पार्को की स्थिति तो इससे भी दयनीय है, लोग पार्क में घूमने जाते हैं और गंदगी फैलाकर वापस लौटते हैं लेकिन विडंबना यह है कि उन्हें सबक सिखाने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की जाती। दीवारों पर पोस्टर प्रतिबंधित करने के लिए नया डिफेसमेंट एक्ट बना लेकिन पोस्टर लगाने, दीवारे पोतने के आरोप में कभी किसी को बड़ी सजा की खबर सुनाई नहीं दी, ऐसे में एैसे कानून का औचित्य ही लोगों की नजर में नहीं रहता। कानून का उल्लंघन करने वाले भी इस बात को जानते हैं कि उन्हें सजा मिलना तो दूर उनकी इस गलती को गंभीरता से भी कोई नहीं लेगा। मेट्रो स्टेशनों पर मेट्रो में सवार होने की तहजीब सिखाने के लिए डीएमआरसी प्रशासन लगातार न केवल स्टेशनों पर फिल्मों का प्रदर्शन कर रहा है बल्कि प्रमुख स्टेशनों पर गार्ड भी तैनात किये गये हैं बावजूद इसके जब ट्रेन आती है तो ट्रेन से उतरने वाले यात्रियों व सवार होने वाले यात्रियों में गुत्थमगुत्था रोजाना होती है और इस दौरान महिलाओं को तो अक्सर छेड़छाड़ का शिकार भी होना पड़ता है लेकिन बावजूद इसके एैसी गुत्थमगुत्था करने वालों पर कोई बड़ा जुर्माना कभी नहीं हुआ। यह स्थिति सभी विभागों से संबधित नियमों के उल्लंघन पर लागू हो रही है और विभागों के अधिकारी स्वयं ऐसे नियमों का उल्लंघन करते देखे जाते हैं।
  • स्कूलों में नहीं है नगरीय तहजीब सिखाने का पाठयक्रम

  • आम जनता को नगरीय तहजीब सिखाने की बातें तो अक्सर की जाती हैं लेकिन इसमें सबसे बड़ी खामी हमारी शिक्षा व्यवस्था में इस तरह का कोई पाठयक्रम न होना भी है। स्कूलों में शैक्षिक विकास पर तो बल दिया जाता है लेकिन दैनिक जीवन व नगर से जुड़ी जरूरी बातों को अक्सर उपेक्षित रखा जाता है। राजधानी दिल्ली को अब विश्वस्तरीय नगर बनाने की बात की जा रही है और विश्व के अन्य देशों से इसकी तुलना भी की जाने लगी है नतीजतन इस तुलना में दिल्ली अन्य देशों के नगरों से पीछे दिखाई देती है, इसका प्रमुख कारण वहां के लोगों की नगरीय तहजीब यानि सिविक सेंस है। दरअसल विदेशियों में इस तरह की सिविक सेंस का एक बड़ा कारण उनकी शिक्षा व्यवस्था है। वहां के किसी छोटे स्कूल का छात्रा भी इस तहजीब में बंधा दिखाई देता है क्योंकि स्कूल में शिक्षा के साथ साथ आम नागरिक जीवन के पहलुओं को भी सिखाया पढ़ाया जाता है। राजधानी में शिक्षा व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी यह है कि शिक्षा व्यवस्था भी सरकार और एमसीडी में बंटी है और पाठयक्रम इन दोनों का ही नहीं है। यहां के स्कूलों में सीबीएसई पाठयक्रम लागू है, निजी स्कूलों में भी अधिकतर स्कूलों में सीबीएसई पाठयक्रम लागू है, सीबीएसई के स्तर पर भी अपने पाठयक्रम में सिविक सेंस से जुड़ी शिक्षा देने की कोई गंभीर पहल कभी नहीं हुई है। सरकार और निगम तो अपने स्कूलों के प्रति आंखे मूंदे रहते ही हैं, जबकि निजी स्कूलों का आलम यह है कि उनकी निगाहें पाठयक्रम से ज्यादा स्कूल की छवि व उसके परीक्षा परिणाम पर ज्यादा होती हैं नतीजतन नागरिक जीवन से जुड़े पहलू अनछुए रह जाते हैं।

शहरी विकास मंत्राी डा.ए.के.वालिया से बातचीत

लोग दिल्ली को समझें अपना घर: वालिया

कामनवेल्थ गेम के मद्देनजर दिल्ली वालों को एटीकेट सिखाने व उनका एटीटयूट सुधारने की भी बात की जा रही है क्या दिल्ली वालों का एटीटयूट ठीक नहीं ?
कामनवेल्थ गेम देश के स्वाभिमान व सम्मान से जुड़े हैं, आखिर यह देश का मामला है, विदेशी मेहमानों के साथ कोई छेड़छाड़, अभद्र व्यवहार जैसी घटनाएं होंगी तो इसका गलत प्रभाव पड़ेगा। जहां जहां भी खेल होते हैं वहां विदेशी मेहमानों की सहायता के लिए स्वयसेवकों की फौज बनाई जाती है, यहां भी एैसी फोज तैयार हो तथा आम जनता को भी शिक्षित करना होगा।

लोगों को शिक्षित करने के जो प्रयास हो रहे हैं क्या वह काफी हैं ?
युद्ध स्तर पर काम करना होगा। हम खेल से जुड़ी परियोजनाओं पर तो बल दे रहे हैं लेकिन इस तरफ अभी ध्यान नहीं दिया गया है। अब समय आ गया है कि लोगों को शिक्षित करें ताकि खेलों के दौरान विदेशी मेहमानों के सामने दिल्ली व देश की बेहतर छवि प्रस्तुत हो।

दिल्ली की जनता में एटीटयूट व एटीकेट की कमी का क्या कारण है?

दिल्ली का विकास योजनाबद्ध नहीं हुआ है और यहां की आबादी में भी बड़ी आबादी माइग्रेटिड है। बाहर से लोग आते हैं और जहां जगह मिलती है वहां बसेरा बना लेते हैं। न तो मूलभूत सुविधाएं वहां तक पहुंच पाती हैं और न ही शिक्षा। सरकार अब प्रयास कर रही है, जेजे कलस्टर निवासियों को फ्लैट दिये जा रहे हैं ताकि उनके रहन सहन का स्तर ऊंचा हो, अनाधिकृत कालोनियों को भी नियमित कर वहां सुविधाएं पहुंचाई जा रही हैं। जनसंख्या का दबाव भी एक बडी समया है।

ेकामनवेल्थ गेम को देखते हुए दिल्ली के लोगों की सिविक सेंस को आप किस रूप में देखते है ?
सिविक सेंस एक बड़ी समस्या है, इसे निश्चित रूप से सुधारना होगा, इसके लिए नये नियम व कानून भी बनाये जाने की जरूरत है। विदेशों में यदि सिविक सेंस है तो वहां भी धीरे धीरे सुधार हुआ है, वहां नियम तोड़ने पर सजा का प्रावधान भी कड़ा है। सजा के दबाव से भी जागरुकता उत्पन्न होती है।

कड़े नियम कानून बनाने की दिशा में सरकार ने क्या किया है ?
सरकार ने अपनी तरफ से पहल की है। जगह जगह दीवारों पर पोस्टर आदि रोकने के लिए अपना डिफेंसमेंट एक्ट बनाकर कड़ी सजा के प्रावधान किये। अब अपना आबकारी एक्ट बनकर तैयार है जिसमें सड़कों के किनारे शराब का सेवन करने पर कड़ी सजा का प्रावधान है।

दो एक्ट बना देने से कितनी सफलता मिल सकती है ?
सरकार के हाथ बंधे हैं, एमसीडी एक्ट में भी बड़े संशोधन की जरूरत है, लेकिन दिल्ली सरकार के अधीन एमसीडी न होने के कारण सरकार कुछ कर सकने में सक्षम नहीं है। हम कानून नहीं बना सकतंे। छोटे छोटे काम के लिए भी केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय व गृह मंत्रालय में जाना पड़ता है और बहुत धीमी गति से काम आगे बढ़ते है। निश्चित रूप से काफी सुधार की जरूरत है।

जनता में क्या खामियां देख रहे हैं ?
इसे खामियां नही कहेंगे, जागरुकता की कमी कहेंगे। लोग अपने घर का कूड़ा सड़क पर डालते हैं या फिर नाले में डाल देते हैं जिससे सड़को ंपर गंदगी होती है, नाले व सीवर लाइन जाम हो जाती हैं और फिर उन्हीं लोगों को समस्या होती है, यही उन्हें समझना होगा। जनता को समझना होगा कि दिल्ली उनकी अपनी है, और अपनी दिल्ली को साफ सुथरा उन्हें रखना है, जनता को समझना होगा कि यहां की सम्पत्ति उनकी अपनी सम्पत्ति है जिसे नुकसान न पहुचंाया जाये। लोग दिल्ली को अपना घर समझें और जिस तरह अपने घर को रखते है उसी तरह दिल्ली को सहेज कर रखें।

जनता को जागरुक करने के लिए सरकारी स्तर पर क्या प्रयास किये गये हैं ?
सरकार समय समय पर जागरुकता अभियान चलाती रही है। होली पर प्राकृतिक रंगों से होली खेलने का अभियान छेड़ा गया तो दीपावली पर पटाखों से प्रदूषण न फैलाने के अभियान चलाये जो काफी सफल रहे।
सिविक सेंस से संबधित दिल्ली की बड़ी समस्या आप क्या देखते हैं ?
सबसे बड़ी समस्या सेनीटेशन और जलभराव की है, इसका कारण यही है कि लोग अपने घर का कूडा कूड़ेदार में डालने के प्रति जागरूक नहीं। कूड़ा नालियों में फंसने के कारण ही जलभराव की स्थिति उत्पन्न होती है। दूसरी बड़ी समस्या प्रदूषण है जिसके लिए सरकार ने लगातार गंभीर पहल कर सभी सार्वजनिक वाहनों को सीएनजी में परिवर्तित किया है और प्रदूषण कम करने के अभियान चलाये हैं।

बिजली व पानी की फिजूल खर्जी भी एक बड़ी समस्या है क्योंकि दिल्ली की बढ़ती आबादी के लिए यूं भी बिजली पानी की कमी महसूस की जा रही है, इस पर क्या कहेंगे ?
बिजली पानी की फिजूलखर्जी एक बड़ी समस्या है लेकिन इससे बड़ी समस्या बिजली चोरी व लीकेज के कारण बेकार होने वाला पानी है। इसे रोकने की जरूरत है।

मौत के कारागार

एक्सरे : मौत बांटती जेल

ये मौत के कारागार हैं, जहां एक हजार से अधिक लोग हर साल मौत के मूंह में चले जाते हैं। कारागार की तंग कोठरियो में आजाद होने का सपना संजोने वाले बंदियों को आजादी भले न मिले लेकिन जलालत, शोषण, उत्पीड़न और मौत जरूर मिल जाती है। गाजियाबाद की डासना जेल में रहस्यमय मौत का शिकार हुए आशुतोष अस्थाना की मौत ने एक बार फिर उन सवालों को खड़ा कर दिया है जो सवाल जेलों में व्याप्त भ्रष्टाचार व खुंखार अपराधियों के वर्चस्व की कहानी बयां करते हैं। जेलों में सुधार की बात तो की जाती है और तकरीबन हर जगह बंदी सुधार के लिए तरह तरह के कार्यक्रम भी चलाये जाते हैं लेकिन आये दिन जब जेलों के भीतर कैदियों के आपसी संघर्ष, हत्याओं व रहस्यमय मौतों के किस्से सामने आते हैं तो जेलों को सुधार गृह बनाने की कवायद दम तोड़ती दिखाई देती है। जेलों के भीतर होने वाले कारनामों को लेकर जेल अधिकारियों के माथे पर बार बार कलंक लगता रहा है ओर हर कलंक को किसी न किसी मजिस्ट्रेटी जांच से धो दिया जाता है। जेलों में मौत के आंकड़े जेलों की बदहाली की कहानी कहते हैं। हालांकि जेलों में मौतों को लेकर कोई ताजा आंकड़े नहीं है लेकिन पिछले वर्ष एक स्वयं सेवी संगठन ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से प्राप्त आंकड़ों को सार्वजनिक करते हुए दावा किया था कि पांच वर्षो के दौरान 7468 लोगों की भारतीय जेलों में या पुलिस हिरासत में मृत्यु हुई है। एक अनुमान के अनुसार देश में कहीं न कहीं औसतन चार लोगों की मौत प्रतिदिन जेल में या पुलिस हिरासत में हो जाती है। जेलों में जितनी भी मृत्यु होती हैं, उनकी जांच की जाती है और अधिकतर मामलों में जांच रिपोर्ट या तो सार्वजनिक ही नहीं होती, और यदि होती भी है तो उसमें बंदी की मृत्यु को स्वाभाविक मृत्यु मान लिया जाता है। बहुत कम मामले एैसे हैं जबकि जांच के बाद किसी बंदी की मृत्यु को लेकर जेल कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई हुई है। यह ठीक है कि जेल के भीतर सजायाफ्ता कैदियों की बीमारी के कारण स्वाभाविक मौतें भी होती हैं लेकिन एैसी मौतों के लिए भी जेल प्रशासन की लापरवाही को माफ नहीं किया जा सकता। यह जग जाहिर है कि जेल में आम कैदियों को किस तरह का उपचार मिलता है। सुरक्षा व सुधारों की दृष्टि से देश में राजधानी की तिहाड़ जेल प्रमुख जेलों में है। इस जेल में इस वर्ष अक्टूबर तक 14 लोग मौत का शिकार हुए हैं, जेल रिकार्ड के अनुसार इन सभी की मौत बीमारी के कारण हुई है तथा आधे से अधिक कैदियों की मौत उपचार के दौरान जेल से बाहर के अस्पतालों में हुई है। इसी तरह गत वर्ष तिहाड़ जेल में कुल 13 कैदी मौत का शिकार हुए थे, जेल प्रशासन के अनुसार इनकी मौत भी बीमारी के कारण हुई।

विवादित रहा है डासना जेल का इतिहास

गाजियाबाद की डासना जेल एक बार फिर सवालों के घेरे में है। वर्ष 1997 से अब तक 93 लोग डासना जेल में मौत का शिकार हुए हैं इस वर्ष भी अब तक 9 लोग यहां मौत के मूंह में जा चुके हैं ओर जेल प्रशासन के पास सभी मौतों के लिए एक ही रटा रटाया जवाब है कि इन बंदियों की मौत बीमारियों के कारण स्वाभाविक रूप से हुई है। बहुचर्चित पीएफ घोटाले में गिरफ्तार मुख्य आरोपी आशुतोष अस्थाना की जेल में हुई रहस्यमय मौत से गाजियाबाद की डासना जेल एक बार फिर चर्चा में है। डासना जेल हमेशा ही विवादों के घेरे में रही है, कभी यह जेल फ्रन्टीयर मेल बम कांड के आरोपी शकील की मौत को लेकर कलंकित हुई तो कभी कविता चैधरी हत्याकांड के आरोपी अरविंद प्रधान की मौत को लेकर कलंकित हुई। इसके अलावा भी दर्जनों एैसी मौतों के मामले हैं जिन्हें लेकर जेल प्रशासन पर उंगली उठती रही है। फ्रन्टीयर मेल बम कांड के आरोपी शकील का शव जेल में एक खिड़की से लटका पाया गया था। जेल प्रशासन के अनुसार शकील ने अपनी ही शर्ट से फांसी लगाकर आत्महत्या की थी लेकिन जिस तरह उसका शव मिला उससे आत्महत्या की कहानी जेल प्रशासन की अपनी बनाई कहानी दिखाई दे रही थी। इसी कविता चैधरी हत्या कांड के मुख्य आरोपी अरविंद प्रधान की हत्या भी रहस्यमय परिस्थितियों में हुई। प्रधान की हत्या के बाद जो बातें जेल के भीतर से छन कर बाहर निकली थी उन पर यकीन किया जाये तो पता चलता है कि अरविंद प्रधान की हत्या की गई थी और उसे मारने के लिए खाने में कांच पीसकर खिलाया गया था। पिछले कुछ वर्षो में यहां लगभग एक दर्जन मौतें इसी तरह रहस्यमय परिस्थ्तिियों में हुई है। इनमें कमरुदद्ीन, इकबाल सिंह, जी।जी.हसन, नूर हसन, गुरुजन सिंह व ठाकुर सिंह एैसे नाम हैं जो जेल प्रशासन की पोल खोलने के लिए काफी है। डासना जेल में पिछले तीन वर्षो में होने वाली मौतों का आंकड़ा देखें तो पता चलता है कि वर्ष 2006 में यहां आठ लोग मौत का शिकार हुए जबकि वर्ष 2007 में 9 लोग मौत का शिकार हुए और वर्ष 2008 में 4 लोग मौत का शिकार हुए। जेल प्रशासन के अनुसार यह सभी मौतें बीमारी के कारण या अन्य कारणों से हुई स्वाभाविक मौतें थी।

आखिर क्या है अस्थाना की मौत का सच

गाजियाबाद की डासना जेल में बंद 23 करोड़ के पीएफ घोटाले के आरोपी आशुतोष अस्थाना की मौत का सच दबाने की तमाम कोशिशों के बावजूद जेल प्रशासन की लापरवाही सच बयां कर रही है। जेल प्रशासन के लिए भले ही वह आम कैदी हो लेकिन एक प्रमुख घोटालें में तीन दर्जन जजों का नाम लेने वाला कैदी वास्तव में आम कैदी नहीं बल्कि खास कैदी था । आखिर अस्थाना के बयानों पर ही न्यायपालिका की भी साख टिकी थी। उसकी मौत पर जेल प्रशासन भले ही खुद को पाक साफ बता रहा हो लेकिन जिस कैदी की जान को खतरा हो और वह जेल प्रशासन व एसएसपी से भी बचाव की गुहार कर चुका हो, उसकी सुरक्षा में लापरवाही क्यों बरती गई। इसका कोई जवाब जेल प्रशासन के पास नहीं है। डासना जेल में बंद आशुतोष अस्थाना एक हाईप्रोफाइल केस का आरोपी थी और उसे अपनी हत्या की आशंका भी थी। डासना जेल के पुराने इतिहास को देखते हुए अब यह संदेह होना लाजिमी है कि उसकी मौत स्वाभाविक मौत नहीं बल्कि हत्या थी। गाजियाबाद में हुए करोड़ो के पीएफ घोटाले के आरोपी आशुतोष ने इस मामले में 36 जजों के शामिल होने का बयान दिया था, उनके इस बयान के बाद पूरी न्यायपालिका में न केवल हड़कंप मचा था बल्कि न्यायपालिका की साख पर भी संकट दिखाई दे रहा था, ऐसे में उसकी हत्या की आशंका स्वाभाविक है क्योंकि उसी के बयानों पर कई प्रमुख लोगों का भविष्य व साख टिकी थी। तभी तो स्वयं आशुतोष को अपनी हत्या का डर सता रहा था और वह लगातार अपने इस डर से जेल प्रशासन को भी अवगत करा रहा था। अस्थाना द्वारा बार बार चेताये जाने के बावजूद जेल प्रशासन ने जेल में न तो आशुतोष को उच्च सुरक्षा वार्ड में रखा गया और न उसकी देखभाल की कोई व्यवस्था की। आखिर जेल प्रशासन का रवैया इतना लापरवाहीपूर्ण क्यों रहा, यह एक बड़ा सवाल है। यह लापरवाही तब भी जारी रही जब गत 6 फरवरी को कैदियों ने उस पर हमला किया था। अस्थाना ही नहीं बल्कि अस्थाना का परिवार भी लगातार कोर्ट और पुलिस में से इस बात की शिकायत कर रहा था कि उसे मार दिया जायेगा। आशुतोष अस्थाना ने अपने वकील के जरिए 15 फरवरी 2009 को गाजियाबाद कोर्ट को पत्र लिखकर बताया था कि 6 फरवरी को अदालत में लाने के बाद कैदियों ने उसपर हमला किया था। बाद में 7 मार्च को उसने कोर्ट के साथ-साथ एसएसपी गाजियाबाद को भी जान से खतरे की बात बताई। प्रदेश के आईजी जेल स्वयं यह मान चुके हैं कि अस्थाना को जेल में खतरा था तथा कुछ कैदियों ने उसकी पिटाई भी की थी। जेल सूत्रा बताते हैं कि उसकी एक बार नहीं बल्कि दो बार कैदियों ने पिटाई की और वह अपने साथी कैदियों से भी अपनी हत्या की आशंका व्यक्त करता था। बावजूद इसके जेल प्रशासन ने उसे जेल में सुरक्षा प्रदान नहीं की जिसका नतीजा वही हुआ जो इससे पूर्व कविता चैधरी हत्या कांड के आरीपी अरविंद प्रधान के साथ हुआ। अस्थाना रहस्यमय मौत का शिकार हो गया। उसकी मौत के रहस्य से पर्दा भले ही न उठ पाये लेकिन परिस्थितियां इस बात का गवाह है कि उसकी मौत सामान्य मौत नहीं थी।

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

यहां आसानी से पूरी होती है समलैगिक साथी की तलाश

लगभग दो दर्जन स्थान हैं समलैगिकों के अड्डे

  • क्लबों, बार, रेस्टोरेंट व डिस्कोथेक में होती है साप्ताहिक पार्टियां
    पिछले 10 वर्ष से लगातार बढ़ रही है समलैंगिक प्रवृति
    पिछले छह वर्ष में बढ़ा है समलैंगिकता का चलन
    समलैगिकों में 16 से 30 वर्ष आयु वर्ग के लोगों की संख्या अधिक
    दक्षिणी दिल्ली व पश्चिमी दिल्ली में होती हैं साप्ताहिक पार्टियों का चलन
    इंटरनेट के जरिए ढूंढते हैं पसंद के साथी
    स्कूल व कालेज व हास्टल में रहने वाले छात्रा छात्राओं में भी बढ़ रही है यह प्रवृति
    अप्राकृतिक संबधों को गलत नहीं मानते समलैंगिक

नई दिल्ली। उनके लिए प्यार का अहसास भी अलग है और यौन संतुष्टि की परिभाषा भी अलग है। समलिंगी साथी के आकर्षण का सामीप्य ही उन्हें चरम सुख प्रदान करता है तभी तो चढ़ती उम्र में वह एक ऐसी हमराही की तलाश करते हैं जो तलाश उन्हें आम आदमी से कुछ अलग करती है। इंटरनेट पर फ्रेन्डशिप साइटें न केवल इनकी तलाश को पूरा कर रही है बल्कि एक एक कर अब यह वर्ग क्लबों के रूप में भी संगठित हो रहा है। इन क्लबों में मनपसंद साथी तो मिलता ही है साथ साथ ऐसा सकून भी जो इनके लिए तमाम सुखों से ऊपर है। इनके लिए इनके संबध न तो अप्राकृतिक हैं और न ही सामाजिक मर्यादा के खिलाफ हैं। समलैंिगकता के विरोधी भले ही इसे मानसिक विकृति कहें लेकिन समलैंिगक संबधों पर उन्हें गर्व है। राजधानी के उच्च वर्ग व उच्च मध्यम वर्ग के अलावा स्कूल कालेजों में समलिंगी संस्कृति दिन प्रतिदिन फल फूल रही है। इंटरनेट पर सैंकड़ों ऐसी साइटें हैं जो इन्हें अपना मनपसंद साथी खोजने में मदद करती हैं, यही नहीं दक्षिणी दिल्ली व पश्चिमी दिल्ली में समलैंगिक वर्ग ने अपने समूह, संगठन व क्लब भी बना लिए है और किसी निश्चित स्थान पर नियमित रूप से एकत्रा होकर न केवल यह मौज मस्ती करते हैं बल्कि समलैंिगक रिश्तों पर खुल कर परिचर्चा भी करते हैं। जानकारी के अनुसार राजधानी में लगभग दो दर्जन ऐसे स्थान हैं जहां यह लोग नियमित रूप से मिलते हैं। पिछले दस वर्ष में राजधानी में समलिंगी संस्कृति ज्यादा विकसित हुई है। समलैगिकों को लामबंद करने में इस दिशा में कार्य कर रहे स्वैच्छिक संगठन नाज फाउण्डेशन तथा वाॅइस अगेन्सट 377 ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है। एक अन्य संस्था हमराही भी पिछले लंबे समय से समलैगिंकों के लिए कार्य करती रही है। इंटरनेट की फ्रेन्डशिप साइटों, फेसबुक, ओरकुट, हाई 5, टैग्ड, व्यान आदि में जहां ें समलैंिगक साथी को आसानी से खोजा जा सकता है वहीं कुछ वेबसाइटें भी समलैंगिकों को उनका मनपसंद साथी खोजने में मदद करती है। कुछ साइटों में तो समलैगिंकों के लिए अलग चैटिंग रूम भी उपलब्ध है। जानकारी के अनुसार राजधानी में चाणक्य पुरी स्थित एक निश्चित स्थान पर पिछले लगभग पांच वर्ष से समलैगिंक वर्ग द्वारा नियमित रूप से साप्ताहिक पार्टी का आयोजन किया जाता है। रात्रि 9 बजे से शुरु होने वाली यह पार्टी देर रात तक चलती है। काल सेंटरों में कार्यरत युवा, मल्टी नेशनल कंपनियों के एक्जक्यूटिव स्तर के कर्मचारियों के अलावा कुछ स्वैच्छिक संगठनों के कार्यकर्ता भी इन पार्टियों में दिखाई देते हैं। इसके अलावा स्कूल कालेजों के होस्टलों में भी समलैंिगक वर्ग ने अपने छोटे छोटे समूह बना रखे हैं और इन समूहों में वह अक्सर राजधानी के कुछ पार्को में मौज मस्ती के लिए जाते हैं। नेहरु पार्क, पीवीआर साकेत, सेन्ट्रल पार्क, जनकपुरी डिस्ट्रिक पार्क,चिराग दिल्ली, धौलाकुआं, इंडिया गेट, इन्द्रप्रस्थ पार्क व बस अड्डे आदि समलैगिंक युगलों के मनपसंद स्थान है। इसके अलावा पार, पब, रेस्टोरेंट व डिस्कोथेक भी इनके मिलने के अड्डे हैं। समलैगिंकों को अपने संबधों पर न तो कोई पछतावा है और न ही वह शर्मसार हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय के बाद तो वह गौरवान्वित हैं। कानूनी मान्यता मिलने के बाद अब इनकी कोशिश अपने रिश्तों को सामाजिक मान्यता दिलाने की है। समलैगिकों की लड़ाई लड़ रहे वाॅाइस अगेन्सट 377 के सुमित कहते हैं कि कानून से बड़ी चीज सामाजिक मानसिकता है, अब समाज को भी अपनी मानसिकता बदलनी होगी तभी समलैंिगकों के गौरव व आत्मसम्मान में बढोत्तरी होगी।

‘चालू छ भई चालू छ हमरा मजा चालू छ‘

सेक्स हो या प्यार वो नहीं है सामाजिक नियमों के मोहताज
sanjay टुटेजा
नई दिल्ली। समलिंगी रिश्तों पर न तो वह शर्मसार हैं और न ही सामाजिक वर्जनाओं की उन्हें फिक्र है। उनके लिए तो आज का दिन जश्न का दिन है और नई उम्मीदों का दिन है । मानों उनके सपने साकार हो गये। समाज गाली देता है तो दे कम से कम कानून का तो सहारा मिल गया, शायद यही उनकी सबसे बड़ी जीत है। आपसी रिश्तों को लेकर सामाजिक नियम जो भी हों लेकिन सेक्स हो या प्यार, इस बारे में वह सामाजिक नियमों के मोहताज नहीं है। विपरीत सेक्स का आकर्षण उनके लिए बेमानी है तभी तो अपने भविष्य के सपने भी वह अपनी समलिंगी साथी की आंखों में देखते हैं। इस रिश्ते के बारे में पूछने पर वह यही बोलते है ‘चालू छ भई चालू छ हमरा मजा चालू छ’। समलेंगिक रिश्तों को लेकर आज खामोश रहने वाले लबों पर भी प्यार के तराने थे। आखों में मस्ती थी और चेहरों पर एक नई चमक। हाईकोर्ट के फैसले के बाद आज जब समलिंगियों के जोड़े प्यार के गीतों मे डूब कर राजधानी की सड़कों पर उतरे तो उनकी आंखों में न तो कोई शर्म थी और न ही उन्हें समाज का कोई डर था। मानों उनका रोम रोम रोमांचित था। हर ओर से बस यही आवाज उठ रही थी ‘देता है दिल दे, बदले में दिल के, न मांगू मैं सोना चांदी, न मांगू मैं हीरा मोती, ये मेरे किस काम के‘। अब तक अपने रिश्तों पर खुल कर बोलने से भी हिचकिचाने वाले समलिंगी जोड़ों की आंखें भी यही गीत गा रही थी ‘आदमी हूं आदमी से प्यार करता हूं’। जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में बीए की छात्रा जूही आज अपनी समलिंगी साथी कल्पना के साथ यह जश्न मनाने पहुंची। जूही का कहना था कि समाज तो किसी लड़के व लड़की के प्यार को भी मान्यता नहीं देता, फिर वह समाज की क्यों फिक्र करें। अब एक साथ जीने मरने की जो कसमें जो उन्होंने खाई हैं कम से कम अब कोई कानूनी रोड़ा इन कसमों को पूरा करने में नहीं आयेगा। उसकी साथी कल्पना ने भी जूही के स्वर में स्वर मिलाते हुए कहा हां, अब उन्हें एक साथ रहने से कोई नहीं रोक सकेगा। जूही और कल्पना ने जहां बेबाकी से दिल की बात कहीं वहीं सादिक और उपेन्द्र, नेहा और भारती, तथा अशोक और प्रियेश अपने दिल की बात कहने में शर्मा गये लेकिन उनकी आंखों ने उनकी दिल की बात बयां कर दी। कनाट प्लेस में ही एक फर्म में काम करने वाली अनुप्रीति भी अपनी एक महिला साथी के साथ वहां मौजूद थी, उनसे उनके रिश्ते के बारे में पूछा तो वहा मुस्कुरा कर गाने लगी ‘ चालू छ भई चालू छ हमरा मजा चालू छ’।

बुधवार, 6 मई 2009

उत्तर पश्चिम: समस्याओं के भंवर में फंसी दो महिलाएं

नई दिल्ली। उत्तर पश्चिम (सु।) लोकसभा सीट समस्याओं का ऐसा भंवर है जिसमें दो सशक्त महिलाएं फंस गई हैं। एक महिला अपने ही घर में परायों से घिरी है तो दूसरी महिला बाहरी होकर वहां अपनी जगह तलाश रही है। एक महिला के पास निष्ठावान कार्यकर्ताओं की फौज ,है तो दूसरी महिला के पास लंबा राजनीतिक अनुभव। एक महिला के पास लोकसत्त्ता के सबसे छोटे सदन का प्रतिनिधित्व है तो दूसरी महिला के पास देश के सर्वोच्च सदन का प्रतिनिधित्व है। एक महिला के सामने अपने ऊंचे सपनों को साकार करने का अवसर है तो दूसरी महिला के सामने अपनी प्रतिष्ठा को बचाये रखने की चुनौती है। इन दोनों ही महिलाओं का लक्ष्य तो एक है लेकिन राह जुदा है। पग पग पर खड़ी समस्याओं के भंवर में फंसी यह दोनों ही महिलाएं अब इस भंवर से निकलने के लिए किसी मजबूत सहारे को तलाश रही हैं। ' उत्तर पश्चिम (सु।) लोकसभा सीट दिल्ली के चुनावी परिदृश्य में नई लोकसभा सीट है। दिल्ली की सातों लोकसभा सीटों में सर्वाधिक मतदाताओं वाली इस सीट पर कुल उम्मीदवारों की संख्या तो 16 है लेकिन मुख्य मुकाबला दो महिलाओं कांग्रेस की सांसद व उम्मीदवार कृष्णा तीरथ तथा भाजपा उम्मीदवार व मौजूदा पार्षद मीरा कांवरिया के बीच है। वैसे एक तीसरी महिला रिपब्लिकन पार्टी की गीता भी चुनाव मैदान में अपनी पहचान बनाने की कशमकश कर रही है। इन महिलाओं में कांग्रेस की कृष्णा तीरथ का ेेकद तो सांसद होने के कारण भले ही ऊंचा है लेकिन बाहरी उम्मीदवार होने के छवि ने यहां उनके कद को छोटा कर दिया है। उत्तर पश्चिमी लोकसभा क्षेत्रा में रहने वाले अधिकतर लोगों की त्रासदी यह है कि आजादी के छह दशक बाद भी यहां लोग सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी आदि मूलभूत समस्याओं से वंचित हैं। इस लोकसभा क्षेत्रा का एक चैथाई क्षेत्रा ग्रामीण है। यहां कुल 97 गांव हैं जिनमें से दो दर्जन गांवों में डाकखाना तक नहीं है और पानी तो दूर कई गांवांे में सड़कें तक नहीं हैं। एक चैथाई क्षेत्रा इस सीट में अनाधिकृत कालोनियों का है, जहां कच्ची गलियां, पेयजल की किल्लत और सीवर लाइन न होना बड़ी समस्या है। एक चैथाई क्षेत्रा पुर्नवास कालोनियों का है, इनकी अपनी समस्याएं हैं, कोई मालिकाना हक के लिए संघर्ष कर रहा है तो कोई अन्य समस्याआंे से जूझ रहा है। रोहिणी सहित लगभग एक चैथाई क्षेत्रा ही ऐसा है जहां कुछ विकास दिखाई देता है, बाकी तीन चैथाई क्षेत्रा में केवल समस्याएं ही दिखाई देती हैं, यह तीन चैथाई क्षेत्रा पानी की बूंद बूंद के लिए तरसता है। यह इस क्षेत्रा की विडंबना ही है कि यहां के दस विधानसभा क्षेत्रों में मात्रा तीन सरकारी अस्पताल हैं और मात्रा एक सरकारी कालेज। बादली में एक सरकारी अस्पताल की नींव पूर्व प्रधानमंत्राी राजीव गांधी सहित ने रखी थी और उसके बाद भी दो बार इस अस्पताल का शिलान्यास हो चुका है लेकिन आज तक यह अस्पताल नहीं बन सका है। ग्रामीण किसानों की मुआवजे की समस्या एक बड़ी समस्या है, लंबे अरसे से किसान नई दरों के अनुसार मुआवजे की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं। यह सभी ऐसी समस्याएं हैं जो कांग्रेस की कृष्णा तीरथ के लिए बड़ी समस्या हैं क्योंकि पिछले दस वर्ष से दिल्ली में कांग्रेस का ही शासन है। भाजपा की मीरा कांवरियां के पास खोने को कुछ नहीं है, उनके सामने अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का यह सुनहरा अवसर है। उनका विनम्र स्वभाव और स्वच्छ छवि उनके लिए यहां मददगार हो सकती है।

शनिवार, 2 मई 2009

तपती सड़कों पर हाथी की दौड़ करेगी हार जीत का फैसला

उत्तर पश्चिम, दक्षिण दिल्ली व उत्तर पूर्व में हाथी बना पहेली

सात में तीन सीटों पर बसपा की भूमिका महत्वपूर्ण

बसपा का जातिगत फार्मूला कर सकता है बड़ा फेरबदल

दिल्ली की तपती सड़कों पर हाथी की दौड़ जहां खत्म होगी वहीं से किसी भी प्रत्याशी के संसद पहुंचने का रास्ता शुरु होगा। प्रचण्ड गर्मी में हाथी की दौड़ निश्चित रूप से चुनावी समीकरण को बदलेगी। सात लोकसभा सीटों में तीन सीटों उत्तर पश्चिम, दक्षिणी दिल्ली तथा उत्तर पूर्व में बसपा का मदमस्त हाथी कांग्रेस व भाजपा दोनों के लिए पहेली बन गया है। इन तीनों ही सीटों पर बसपा की अहम भूमिका परिणाम की दिशा तय करेगी। आसमान से आग उगलती गर्मी में राजधानी में चुनावी शोर की गूंज तो पहले जैसी नहीं है अलबत्ता निगम चुनाव में दस्तक के बाद बसपा का हाथी अब हिलौरें लेकर दौड़ने लगा है। हाथी की दौड़ पर न तो मौसम का असर है और न ही कांग्रेस और भाजपा का कोई अंकुश। एैसे में यह दोनों ही दल भयभीत हैं क्योंकि कहीं न कहीं बसपा का हाथी इन दोनों ही दलों को नुकसान पहुंचायेगा। उत्तर पश्चिम, उत्तर पूर्व और दक्षिणी दिल्ली यह तीन लोकसभा सीटें एैसी हैं जहां से बहुजन समाज पार्टी को काफी उम्मीदें हैं। यहां बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी चुनाव भले ही न जीत पायें लेकिन इतना निश्चित है कि इन तीनों सीटों पर किसी भी प्रत्याशी की हार जीत बसपा ही तय करेगी। पिछले निगम चुनाव तथा विधानसभा चुनाव में भी इन तीनों ही सीटों पर बसपा को अन्य सीटों से अधिक सफलता मिली थी। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को सर्वाधिक 24.53 प्रतिशत मत दक्षिणी दिल्ली सीट पर मिले थे और इसी लोकसभा के अन्तर्गत एक विधानसभा सीट पर भी बसपा ने कब्जा किया था। निगम चुनाव में भी इस सीट से तीन वार्डो पर बसपा प्रत्याशी विजयी हुए थे। इस चुनाव में बसपा ने यहां से गुजर प्रत्याशी कंवर सिंह को चुनाव मैदान में उतारा है जो जातीय दृष्टि से भी बसपा के अनुकूल है क्योंकि दक्षिणी दिल्ली सीट गुर्जर बाहुल्य क्षेत्रा है, हालांकि यहां पर भाजपा ने भी गुर्जर प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारा है लेकिन यदि बसपा का जातीगत फार्मूला कामयाब हुआ तो इसका नुकसान भाजपा प्रत्याशी को हो सकता है। उत्तर पश्चिम लोकसभा सीट पर बसपा को विधानसभा चुनाव में 16.54 प्रतिशत मत हासिल हुए थे और निगम चुनाव की अपेक्षा बसपा के मतों में 1.68 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई थी। यहां 22 प्रतिशत अनुसूचित जाति तथा लगभग 20 प्रतिशत ओबीसी मतदाता है इनमें एक बड़ा हिस्सा बसपा का परंपरागत वोट बैंक है, पिछले निगम चुनाव में इसी सीट से बसपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन इसी सीट पर था, यही कारण है कि बसपा ने यहां पर अपनी ताकत लगा दी है, बसपा की मजबूती यहां भाजपा की अपेक्षा कांग्रेस को नुकसान पहुचा सकती है। उत्तर पूर्व सीट पर पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा को 17.67 प्रतिशत मत मिले थे और बसपा के मतों में निगम चुनाव में मिले 13.8 मतों की अपेक्षा 3.87 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी और एक विधानसभा सीट पर भी बसपा ने कब्जा किया था। बसपा इस बार इस वृद्धि को बरकरार रखने की कोशिश में हैं। मुस्लिम बाहुल्य इस सीट पर बसपा ने मुस्लिम प्रत्याशी के रूप में हाजी दिलशाद को उतारा है। मुस्लिम मतदाताओं की संख्या यहां लगभग 22 प्रतिशत है, इसके अलावा ओबीसी व अनुसूचित जाति मतदाताओं की संख्या भी 30 प्रतिशत से अधिक है। बसपा यदि मुस्लिम मतदाताओं का ध्रुवीकरण कराने में कामयाब हुई तो यहां कांग्रेस के लिए मुश्किल हो सकती है।

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

जूते के प्रहार से चिदंबरम नहीं, टाइटलर हुए घायल

टाइलर की उम्मीदवारी पर भारी पड़ सकता है जूता
सीबीआई की क्लीनचिट से बढ़ा आक्रोश
9 अप्रैल के अदालती फैसले पर है निगाहें

नई दिल्ली। गृहमंत्राी पी.चिदंबरम की पत्राकार वार्ता में आज जूता उछाले जाने का चिदंबरम पर तो कोई असर नहीं हुआ है अलबत्ता पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस उम्मीदवार जगदीश टाईटलर इस जूते के हमले से जरूर घायल हुए हैं। जूते का यह हमला उनकी उम्मीदवारी पर भारी पड़ सकता है। सीबीआई से क्लीनचिट के बाद टाईटलर भले ही वर्ष 84 के इस अध्याय को बंद मान चुके हों लेकिन जूते के हमले ने बोतल के जिन्न को फिर बाहर निकाल दिया है नतीजतन कांग्रेस हैरत में भी है और टाईटलर को बनाये रखने की उलझन में भी। पार्टी आलाकमान की इसी उलझन से टाइटलर की नींद उड़ गई है। अब निगाहें 9 अप्रैल को अदालत के फैसले पर है, यदि अदालत ने सीबीआई की क्लीनचिट को खारिज करते हुए मामले की जांच जारी रखने के आदेश दिये तो कांग्रेस कांग्रेस के लिए भी टाइटलर को उम्मीदवार बनाये रखना मुश्किल होगा।
गृहमंत्राी पी.चिदंबरम की पत्राकार वार्ता के दौरान आज एक सिख पत्राकार जरनैल सिंह ने अपना जूता चिदंबरम की ओर उछाल कर जिस तरह का आक्रोश दिखाया, उससे राजनीतिक हलचल बढ़ गई है। लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटी कांग्रेस के लिए चुनाव की दृष्टि से भी यह जूता बड़ा झटका है। दरअसल अब तक कांग्रेस के दिग्गज भी यही मानकर चल रहे थे कि बीते 25 वर्ष में दिल्ली का आम सिख वर्ष 84 के गम को भुला चुका है और सिख संगत के जख्म भी भर गये हैं लेकिन आज की इस घटना से यह स्पष्ट हो गया है कि राजधानी के आम सिख के दिल में अभी भी आक्रोश की ज्वाला धहक रही है।
आज जो आक्रोश दिखाई दिया वह सीधे तौर पर चिदंबरम या कांग्रेस के खिलाफ नहीं था। जूता फैंकने से पूर्व पत्राकार ने टाइटलर को क्लीनचिट देने का सवाल ही उठाया था और चिदंबरम के जवाब से असंतुष्ट होकर ही उसने यह कदम उठाया। इससे स्पष्ट है कि टाइटलर को क्लीनचिट दिया जाना सिख संगत के गले नहीं उतर रहा है। हालांकि समय के साथ साथ दिल्ली का सिख समाज 84 के दंश को भुला चुका था लेकिन अब लगता है कि सिख संगत के जख्म फिर से ताजा हो गये है। जगदीश टाइटलर इन दंगों में सिखों के कत्लेआम के प्रमुख आरोपियों में शामिल थे। 25 वर्ष की लंबी जांच के बाद सिख समाज को यह उम्मीद थी कि उन्हें न्याय मिलेगा लेकिन न्याय के बजाय सिख समाज को एक साथ दो नये जख्म मिले, पहला जख्म सीबीआई के निर्णय से पहले ही कांग्रेस द्वारा उन्हें पूर्वी दिल्ली से उम्मीदवार घोषित करना और दूसरा जख्म उन्हें सीबीआई द्वारा क्लीनचिट दिया जाना था।
सीबीआई से क्लीनचिट मिलने के बाद टाइटलर तो इस अध्याय को बंद मान चुके थे लेकिन लगातार उनके विरोध में प्रदर्शन हो रहे है, यहां तक कि सिखों की सर्वोच्च संस्था एसजीपीसी भी दिल्ली के सिखों की आवाज में आवाज मिलाने दिल्ली पहुची। जो आग सिखें के दिलों में सुलग रही थी, जूता उछाले जाने की घटना ने उस आग में घी डालने का काम किया है। इस घटना के बाद जिस तरह संबधित पत्राकार को पूछताछ के बाद छोड़ दिया गया उससे स्पष्ट है कि चुनाव के समय कांग्रेस कोई खतरा लेने के पक्ष में नहीं है। कांग्रेस आलाकमान की ओर ेस इस तरह की खबरे भी आई हैं कि टाइटलर की उम्मीदवारी पर पुर्नविचार होगा। आज देर शाम जिस तरह टाइटलर की सभी रैलियों व बैठकों को रद्द कर दिया गया उससे टाइटलर की उम्मीदवारी निश्चित रूप से खतरे में दिखाई दे रही है। आगामी 9 अप्रैल को इस मामले की निचली कोर्ट में सुनवाई होनी है। अदालत ने यदि सीबीआई की क्लीनचिट को खारिज कर इस मामले की आगे जांच करने के आदेश दिये तो टाइटलर के लिए मुश्किल हो सकती है। राजनैतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि चुनाव से पूर्व केवल टाइटलर के टिकट को प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर कांग्रेस आलाकमान सिखों को नाराज नहीं करेगा।

सोमवार, 19 जनवरी 2009

अजनबी को हमराही बनाने की पहल

रोड पर राही, भाई भाई

ताकि सड़कों पर दौड़ती मौत पर लगे लगाम

यह एक जजबा है इंसानियत को जिंदा रखने का और राह चलते हर अजनबी को हमराही बनाने का। तेज रफ्तार सड़कों पर दौड़ती मौत को शिकस्त देने की एक एैसी पहल जो निर्जीव व वीरान सड़कों पर भी अजनबियों के बीच भातृत्व व प्यार का एक रिश्ता कायम कर दे। यही रिश्ता बनाने की एक अनूठी कड़ी है ‘रोड पर राही भाई भाई’। हालांकि सड़क दुर्घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए यह एक नारा व स्लोगन भर है लेकिन इस पहल ने लाखों वाहन चालकों मंे एैसा जजबा उत्पन्न किया है कि यह नारा अब सरकारी कानून, जुर्माने व सजा के डर से एक कदम आगे दिखाई देता है। इंटरनेट की फ्रेंडशिप वेबसाइटें हों या फिर एमएनसी कंपनियों की कैन्टीन में गपशप की महफिलें हों, रोड पर राही भाई भाई की गूंज यकायक अपनी ओर आकर्षित करती है। सड़कों पर दुर्घटनाएं न हों और प्रत्येक वाहन चालक सड़क पर अपने आस पास चल रहे अन्य वाहन चालकों से भी एक रिश्ता महसूस करते हुए उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी स्वयं अपने ऊपर ले, यही इस अभियान की मूल भावना है। इस अभियान के पीछे न तो कोई संस्था है, न स्वैच्छिक संगठन और न ही सरकारी सहयोग, एक गृहणी भारती चड्ढा ने इस अभियान की शुरुआत की और बस सड़कों पर दुर्घटनाओं की रोजमर्रा की तकलीफों से जूझते लाखों लोग स्वयं ही परस्पर जुड़कर इस अभियान का हिस्सा बन गये। अब इस अभियान से जुड़े लोग अपने खर्च से बाकी लोगों को भी प्यार व भाईचारे के इस सफर में सहभागी बना रहे हैं। यातायात पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि बीते एक वर्ष में लगभग 2000 लोग राजधानी में सड़क दुर्घटनाओं में मौत का शिकार हुए और कुल 7485 सड़क दुर्घटनाएं हुई जिनमें 17 हजार से अधिक लोग घायल हुए। तमाम कानून, जुर्माना व सजा का डर तो वाहन चालकों में स्व अनुशासन का जजबा कायम नहीं कर सका लेकिन पांच शब्दों का यह स्लोगन ‘रोड पर राही भाई भाई’ वाहन चालकों पर चमत्कारिक असर डाल रहा है और इस अभियान से जुड़ने वाले लोग इस स्लोगन के प्रति प्रतिबद्ध भी दिखाई दे रहे हैं तभी तो गत वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष लगभग एक हजार छोटी बड़ी सड़क दुर्घटनाओं की कमी हुई है। इस अभियान से जुड़े लोग दुर्घटनाओं में इस कमी को इस अभियान का परिणाम मानते हैं। भारती चड्ढा के मुताबिक सर्वप्रथम उन्होंने एयरपोर्ट के तमाम टैक्सी चालकों को इस नारे की मूल भावना से जोड़ा उसके बाद तो स्वपरिवर्तन की एक लहर चल निकली। चडढा कहती हैं कि जब सड़क पर चलते समय हम सभी हमराहियों से भाई का रिश्ता कायम करेंगे तो फिर अपने भाईयों की सुरक्षा की प्रतिबद्धता भी कायम होगी। इस अभियान का हिस्सा बन गये अमित के अनुसार उसकी गाड़ी में लगा यह स्टीकर उसे हमेशा यह याद दिलाता है कि सड़क पर साथ चलने वालों की सुरक्षा का वायदा उसने अपने आप से किया है। एक अन्य व्यवसायी विपिन सूरी कहते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब सड़क पर निकलने वाले अपने बेटे की सुरक्षा से प्रत्येक मां पूरी तरह निश्चितं होगी । वह कहते हैं कि इस नारे के प्रति प्रतिबद्धता कायम करने से ही हमें सड़कों पर एैसी सुरक्षा मिलेगी।